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निन्यािबे का फेर!

एक सम्राट का एक िौकर था, िाई था उसका। वह उसकी मानिश करता, हजामत बिाता। सम्राट बडा
है राि होता था नक वह हमेशा प्रसन्न, बडा आिंनित, बडा मस्त! उसको एक रुपया रोज नमिता था। बस,
एक रुपया रोज में वह खूब खाता-पीता, नमत्ों को भी खखिाता-नपिाता। सस्ते जमािे की बात होगी। रात
जब सोता तो उसके पास एक पैसा ि होता; वह निनिन्त सोता। सुबह एक रुपया नफर उसे नमि जाता
मानिश करके। वह बडा खुश था! इतिा खुश था नक सम्राट को उससे ईर्ष्ाा होिे िगी। सम्राट भी इतिा
खुश िहीं था। खुशी कहां! उिासी और न ंताओं के बोझ और पहाड उसके नसर पर थे। उसिे पूछा िाई
से नक ते री प्रसन्नता का राज क्या है ? उसिे कहा, मैं तो कुछ जािता िहीं, मैं कोई बडा बु खिमाि िहीं।
िे नकि, जै से आप मुझे प्रसन्न िे ख कर नकत होते हो, मैं आपको िे ख कर नकत होता हं नक आपके िु खी
होिे का कारण क्या है ? मेरे पास तो कुछ भी िहीं है और मैं सुखी हूँ ; आपके पास सब है , और आप सुखी
िहीं! आप मुझे ज्यािा है रािी में डाि िे ते हैं । मैं तो प्रसन्न हूँ , क्योंनक प्रसन्न होिा स्वाभानवक है , और होिे
को है ही क्या?

वजीर से पूछा सम्राट िे एक निि नक इसका राज खोजिा पडे गा। यह िाई इतिा प्रसन्न है नक मेरे मि में
ईर्ष्ाा की आग जिती है नक इससे तो बे हतर िाई ही होते । यह सम्राट हो कर क्यों फंस गए? ि रात िींि
आती, ि निि ै ि है ; और रोज न ंताएं बढ़ती ही िी जाती हैं । घटता तो िू र, एक समस्या हि करो, िस
खडी हो जाती हैं । तो िाई ही हो जाते।
वजीर िे कहा, आप घबडाएं मत। मैं उस िाई को िु रुस्त नकए िे ता हूँ।
वजीर तो गनणत में कुशि था। सम्राट िे कहा, क्या करोगे ? उसिे कहा, कुछ िहीं। आप एक-िो- ार निि
में िे खेंगे। वह एक निन्यािबे रुपये एक थैिी में रख कर रात िाई के घर में फेंक आया। जब सुबह िाई
उठा, तो उसिे निन्यािबे नगिे, बस वह न ं नतत हो गया। उसिे कहा, बस एक रुपया आज नमि जाए, तो
आज उपवास ही रखेंगे, सौ पूरे कर िें गे!
बस, उपद्रव शु रू हो गया। कभी उसिे इकट्ठा करिे का सो ा ि था, इकट्ठा करिे की सुनवधा भी ि थी।
एक रुपया नमिता था, वह पयाा प्त था जरूरतों के निए। कि की उसिे कभी न ंता ही ि की थी। ‘कि’
उसके मि में कभी छाया ही ि डािता था; वह आज में ही जीया था। आज पहिी िफा ‘कि’ उठा।
निन्यािबे पास में थे, सौ करिे में िे र ही क्या थी! नसफा एक निि तकिीफ उठािी थी नक सौ हो जाएं गे ।
उसिे िू सरे निि उपवास कर निया। िे नकि, जब िू सरे निि वह आया सम्राट के पैर िबािे, तो वह मस्ती ि
थी, उिास था, न ंता में पडा था, कोई गनणत ि रहा था। सम्राट िे पूछा, आज बडे न ं नतत मािू म होते हो?
मामिा क्या है ?
उसिे कहा: िहीं हजूर, कुछ भी िहीं, कुछ िहीं सब ठीक है ।
मगर आज बात में वह सुगंध ि थी जो सिा होती थी। ‘सब ठीक है’--ऐसे कह रहा था जै से सभी कहते
हैं , सब ठीक है । जब पहिे कहता था तो सब ठीक था ही। आज औप ाररक कह रहा था।
सम्राट िे कहा, िहीं मैं ि मािूंगा। तु म उिास निखते हो, तु म्हारी आं ख में रौिक िहीं। तु म रात सोए ठीक
से?
उसिे कहा, अब आप पूछते हैं तो आपसे झूठ कैसे बोिूं ! रात िहीं सो पाया। िे नकि सब ठीक हो जाएगा,
एक निि की बात है। आप घबडाएं मत।
िे नकि वह न ं ता उसकी रोज बढ़ती गई। सौ पूरे हो गए, तो वह सो िे िगा नक अब सौ तो हो ही गए;
अब धीरे -धीरे इकट्ठा कर िें, तो कभी िो सौ हो जाएं गे। अब एक-एक किम उठिे िगा। वह पंद्रह निि
में नबिकुि ही ढीिा-ढािा हो गया, उसकी सब खुशी िी गई। सम्राट िे कहा, अब तू बता ही िे स -
स , मामिा क्या है ? मेरे वजीर िे कुछ नकया?
तब वह ैं का। िाई बोिा, क्या मतिब? आपका वजीर...? अच्छा, तो अब मैं समझा। अ ािक मेरे घर में
एक थैिी पडी नमिी मुझे--निन्यािबे रुपए। बस, उसी निि से मैं मुखिि में पड गया हं । निन्यािबे का
फेर!
-ओशो…..अष्टावक्र: महागीता भाग-2

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